3/09/2009

बाजे मुरलिया बाजे ..................................


संगीत की होरी बरसाती मुरली ,सुर,श्रुतिमय सुंदर रंग बिखेरती मुरली . मुरली ,बंसरी ,बाँसुरी ......वंसी ,वेणु ,वंशिका कई सुंदर नामो से सुसज्जित हैं बाँसुरी का इतिहास ,प्राचीनकाल में लोक संगीत का प्रमुख वाद्य था बाँसुरी अधर धरे मोहन मुरली पर ,होठ पे माया विराजे ,बाजे मुरलियां बाजे ..................
मुरली और श्री कृष्ण एक दुसरे के पर्याय रहे हैं मुरली के बिना श्री कृष्ण की कल्पना भी नही की जा सकती उनकी मुरली के नाद रूपी ब्रह्म ने सम्पूर्ण चराचर सृष्टि को आलोकित सम्मोहित किया कृष्ण के बाद भी भारत में बांसुरी रही ,पर कुछ खोयी खोयी सी ,मौन सी . मानो श्री कृष्ण की याद में उसने स्वयं को भुला दिया हो ,उसका अस्तित्व तो भारत वर्ष में सदैव रहा . हो भी कैसे ? आख़िर वह कृष्ण प्रिया थी . किंतु श्री हरी के विरह में जो हाल उनके गोप गोपिकाओ का हुआ कुछ वैसा ही बाँसुरी का भी हुआ ,कुछ भूली -बिसरी,कुछ उपेक्षित सी बाँसुरी किसी विरहन की तरह तलाश रही थी अपने मुरलीधर को, अपने हरी को

युग बदल गए ,बाँसुरी की अवस्था जस की तस् रही ,युगों बाद कलियुग में पंडित पन्नालाल घोष जी ने अपने थक परिश्रम से बाँसुरी वाद्य में अनेक परिवर्तन कर ,उसकी वादन शैली में परिवर्तन कर बाँसुरी को पुनः भारतीय संगीत में सम्माननीय स्थान दिलाया लेकिन उनके बाद पुनः: बाँसुरी एकाकी हो गई


हरी बिन जग सुना मेरा ,कौन गीत सुनाऊ सखी री ?सुर,शबद खो गए हैं मेरे ,कौन गीत बजाऊ सखी री

बाँसुरी की इस अवस्था पर अब श्री कृष्ण को तरस आया और उसे उद्धारने को कलियुग में जहाँ श्री विजय राघव राव और रघुनाथ सेठ जैसे महान कलाकारों ने महान योगदान दिया ,वही अवतार लिया स्वयं श्री हरी ने ,अपनी प्रिय बाँसुरी को पुनः जन जन में प्रचारित करने ,उसके सुर में प्राण फुकने ,उसकी गरिमा पुनः लौटाने श्री हरी अवतरित हुए श्री हरीप्रसाद चौरसिया जी के रूप में पंडित हरी प्रसाद चौरसिया जी ......एक ऐसा नाम जो भारतीय शास्त्रीय संगीत में बाँसुरी की पहचान बन गया एक ऐसा नाम जिसने श्री कृष्ण की प्राणप्रिय बाँसुरी को ,पुनः: भारत वर्ष में ही नही बल्कि सम्पूर्ण विश्व में, सम्पूर्ण चराचर जगत में प्रतिष्ठित किया ,प्रतिस्थापित किया , प्रचारित किया गुंजारित किया सम्पूर्ण सृष्टि को बाँसुरी के नाद देव से आलोकित किया बाँसुरी के तम् हरण ब्रह्म नाद रूपी प्रकाश से ब्रह्माण्ड को


श्री कृष्ण का जन्म हुआ था मथुरा नगरी के कारावास में ,मथुरा नगरी याने यमुना की नगरी ,उसके पावन जल के सानिध्य में श्री कृष्ण का बालपन ,कुछ यौवन भी गुजरा . पंडित हरीप्रसाद जी का जन्म जुलाई १९३८ के दिन गंगा ,यमुना सरस्वती नदी के संगम पर बसी पुण्य पावन नगरी अलाहाबाद में हुआ , पहलवान पिता की संतान पंडित हरी प्रसाद जी को उनके पिताजी पहलवान ही बनाना चाहते थे ,किंतु उनका प्रेम तो भारतीय संगीत से था ,बाँसुरी से था शास्त्रीय गायन की शिक्षा पंडित राजाराम जी से प्राप्त की और बाँसुरी वादन की शिक्षा पंडित भोलानाथ जी से प्राप्त की संगीत साधना से पंडित हरिप्रसाद जी का बाँसुरी वादन सतेज होने लगा बाँसुरी वादन की परीक्षा में सफल होने के बाद पंडित जी आकाशवाणी पर बाँसुरी के कार्यक्रम देने लगे कुछ समय पश्चात् आकाशवाणी के कटक केन्द्र पर इनकी नियुक्ति हुई और इनके उत्कृष्ट कार्य के कारण वर्ष के भीतर ही आकाशवाणी के मुख्यालय मुंबई में इनका तबादला हो गया
पहले पंडित जी सीधी बाँसुरी बजाते थे ,तत्पश्चात उन्होंने आड़ी बाँसुरी पर संगीत साधना शुरू की ,बाँसुरी में गायकी अंग ,तंत्र वाद्यों का आलाप जोड़ आदि अंगो के समागम की साधना पंडित जी करने लगे उसी समय इनका संगीत प्रशिक्षण आदरणीय अन्नपूर्णा देवी जी के सानिध्य में प्रारम्भ हुआ ,विदुषी अन्नपूर्णा जी के संगीत शिक्षा से इनकी बाँसुरी और भी आलोकित हुई
आइये सुनते हैं पंडित हरिप्रसाद चौरसिया जी का बांसुरी वादन, तबले पर है उस्ताद जाकिर हुसैन. ये दुर्लभ विडियो लगभग ९३ मिनट का है. हमें यकीन है इसे देखना-सुनना आपके लिए भी एक सम्पूर्ण अनुभव रहेगा.
http://www.youtube.com/watch?v=oVxdjdJ0ZAc


अगली कड़ी में पंडित हरिप्रसाद चौरासियाँ जी की बांसुरी यात्रा सविस्तार

आलेख प्रस्तुतिकरण
विचित्र वीणा साधिका
राधिका बुधकर

4 comments:

  1. वाह क्या मुरली बजाई है आपने.. होली की बहुत बहुत शुभकामनाए.. और हाँ भगवान श्री कृष्ण वाला चित्र बहुत ही सुंदर है

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  2. वाह! आज तो आप का चिट्ठा पूरा होली के रंग में रंगा है। हम ने पहले चित्र देखे और चौरसिया जी को पहले ही पहचान लिया वैसे इस उम्र का उन का चित्र पहली बार देखा।
    होली पर बहुत बहुत शुभकामनाएँ।

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  3. आप सभी दोस्तों को आज रंगो का त्योहार धूलेटी पर हार्दिक मंगल एवं सुभकामानाई

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  4. एक अशास्त्रीय समझ वाले पाठक का स्पष्टीकरण- आपके ब्लॉग स्वरुप पर की गयी टिप्पणी के बारे में-
    ये अक्टूबर महीने का मध्यान था दिन के दो बजे के आस पास कुछ पुस्तकों के बोझ से बाहर निकला और आपके ब्लॉग तक पहुंचा था संयोग अजब था कि पं. रविशंकर जी की पुस्तक "माई म्यूजिक माई लाईफ" के कुछ नोट्स पर विचार कर रहा था, कि भारतीय शास्त्रीय संगीत में रागों के समय सिद्धांत पर आज के दौर में बहस जरूरी है या नहीं ? सवाल था कि आचार्य बृहस्पति समय सिद्धांत को दरबारी लोगों की देन समझते हैं ये सही है या गलत?
    आपकी पोस्ट में राग जोग की मादकता बिखर रही थी तो मैंने दिन में दो बजे उसे सुना... कुछ टिप्पणियों में एक पारुल जी ने इसे सवेरे पौने दस बजे सुना [जैसा कि उनकी टिप्पणी के समय से प्रतीत होता है ] और बकौल पारुल जी बड़ा मजा आया उनको. मुझे आपके ब्लॉग ने अजब सुविधा प्रदान की थी. आप जैसी शास्त्रीय गुणी साधक के ब्लॉग पर पहुंचना एक उपहार सा ही था. मैंने उसी समय आपको अनुसरित करना आरम्भ किया फिर आप सदा ही सुन्दर मनभावन बातें बताती गयी. जब आप चीन पहुंची तब पता नहीं क्यों मेरी व्यस्तताएं दूसरी गतिविधियों में एक एक बढ़ गयी. आपके ब्लॉग के स्वरुप पर मेरा कोई टिप्पणी करने का अधिकार नहीं था फिर भी किसी अनजाने आग्रह ने आपके चैट बॉक्स में कुछ लिखने को विवश कर दिया था शायद मैं ही आपका पहला सार्वजानिक फोलोवर था और पहला चैट बॉक्स का पाठक भी, अगर आप और आपके चाहने वाले इसे दुरस्त समझते हैं तो मेरी बात को किसी कोने में लगी खूंटी पर रखा जा सकता है किसी पुराने उपेक्षित वाद्य की तरह . मैं वडनेरकर जी के ब्लॉग का श्रद्धा पूर्वक सम्मान करता हूँ कल वही से आया हूँ और आज यहाँ तक पहुंचा हूँ.

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