11/28/2008

जी भर कर मारे ताने :ताने मारना अच्छा हैं !

जी आप लाख कहे की ताने नही मारने चाहिए ,मैं तो कहूँगी की ताने मारने ही चाहिए। ताने मारे बिना आनंद ही नही आता । कोई ताने मारे तभी तो लोग कहते हैं क्या बात हैं ,कम से कम मैं तो यही कहती हूँ ,अब आप कहेंगे की कोई पति अपनी पत्नी को किसी बात पर ताना मारे तो पत्नी की आँखों में से गंगा जमुना बहने लगती हैं,कोई सास बहूँ को ताने मारे तो बहूँ एंटी सास दल की सदस्य बन जाती हैं और जो बहूँ ने मारे ताने तो सास बहूँ की कहानी घर घर की बन जाती हैं ,वो भी छोडे कभी किसी दोस्त ने किसी बात पर कस दिए ताने तो "दुश्मन न करे दोस्त ने वो कम किया हैं ",जैसे गानों की सीडी बज जाती हैं ,और रिश्तेदारों ने जो मारे ताने तो हिन्दी धारावाहिकों को एक भोली सी लड़की की करुण सी कहानी मिल जाती हैं ,जिस पर माताए बहने टीवी के सामने आँखों से टेसुए बहाती हैं । अब इतना सुन कह लेने के बाद भी मेरी धारणा नही बदलने वाली ,मैं तो फ़िर भी कहूँगी ,ताने जो मारे तो सभा में आनंद आए , आप मन ही मन में कह रहे हैं न कैसी बुरीमहिला हैं ! कहिये कहिये ,अजी मैं तो कहती ताने भी ऐसे मारने चाहिए जो सीधे आत्मा पर असर करे ,सीधे दिल को छू जाए । अब इससे पहले की आप मुझ पर क्रोधित हो जाए , मैं यह बता दू की मैं कर हूँ बात शास्त्रीय संगीत की तानो की ,वह ताने जिसे सुनकर श्रोता कह उठते हैं वाह वाह,क्या बात हैं ,और किसी ने अगर ताने नही मारी तो कह देते हैं क्या गायन वादन सुनने में मजा ही नही आया ।

अब ताने मारने भी कोई सरल नही हैं ,जी जैसा की बोलचाल में ताने मारने वाले को सोचना पड़ता हैं की मैं ऐसे क्याताने मारू की सुनने वाले का ह्रदय दुःख से भर जाए,आखे आसुंओ से सज जाए ,और कम से कम वह एक दो दिन डिप्रेशन से बहार न आ सके ,ठीक वैसे ही गायन वादन करने वाले कलाकार को सोचना पड़ता हैं की कौनसी तन कैसे मारू की सुनने वाला असीम आत्माआनंद और संगीत की स्वर लहरियों में खो जाए ,और जीवन पर्यंत इस गायन वादन की स्मृति उसे आनंद विभोर करती रहे और इसके लिए रियाज़ भी बहुत करना पड़ता हैं ,घंटो कलाकार को ताने मारने अर्थात गाने या बजाने की प्रेक्टिस करनी पडती हैं ।

अब आप सोचेंगे ये अद्भुत सी ताने हैं क्या ?सधी सी परिभाषा तो यह हैं की स्वरों का वह समूह जिससे राग का विस्तार किया जाता हैं ताने कहलाती हैं ,और थोडी विस्तृत सी भाषा में कहू तो ताने वो जिनमे स्वरों के विभिन्न तरह के समूह बनाये जाते हैं ,और उन्हें थोड़ा या ज्यादा तेज़ ले में गाया बजाया जाता हैं ,वैसे सामान ले में भी ताने बजायी जाती हैं ,लेकिन तेज़ तानो की बात ही कुछ और हैं । तानो के कई प्रकार भी भी होते हैं वो अगली पोस्ट में । फिलहाल सुनिएयह गीत जिसमे लता जी ने कितनी सुंदर ताने ली हैं:और मेरी मानिये खूब ताने मारिये ,क्योकी ताने मारना अच्छा हैं लेकिन बस संगीत में ....
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11/27/2008

सुस्वरा गान विदुषी आदरणीया किशोरी जी और उनकी गायकी :


गणपत विघन हरण गजानन ...सुनते सुनते मन हंसध्वनी के सुश्राव्य मधुर गायन में खो गया ,उनकी आवाज़ मानो कोयल की कुक सी मधुर ,निखल ,निरागस ,मानो माँ शारदा स्वयं कंठ में विराजमान होकर हंसध्वनी के स्वरों के रूप में श्रोता को दिव्य दर्शन दे रही हैं . मैं बात कर रही हूँ गान स्वरस्वती विदुषी किशोरी अमोणकर जी की । विदुषी किशोरी अमोणकर जी की माँ आदरणीय मोगुबाई कुर्डीकर जी भारतीय शास्त्रीय संगीत की महानतम गायिका हुई हैं । जयपुर घराने की गायिका आदरणीय किशोरी जी ने गायन की स्वतंत्र शैली का निर्माण किया हैं ,मिंड युक्त गंभीर आलापचारी किशोरी जी के गायन को गहनता प्रदान करती हैं , गमक का सुंदर गायन ,बोलो का शुद्ध उच्चारण ,सुरीली,सुंदर विभिन्न प्रकार की तानो का गायन,किशोरी जी के गायन को परिपूर्ण कर शोता के ह्रदय को झंकृत कर देता हैं . संगीत सम्राज्ञी विदुषी किशोरी जी को संगीत सम्राज्ञी पुरस्कार के साथ संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार ,व अन्य कई पुरस्कारों के साथ ही पद्मविभूषण से भी नवाजा जा चुका हैं . प्रस्तुत हैं विदुषी किशोरी अमोणकर द्वारा प्रस्तुत राग हंसध्वनी :
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विदुषी किशोरी अमोणकर द्वारा गाया गया भजन ..प्रभुजी मैं अरज करू .....
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11/18/2008

री न न न नोम ...त न न न न नोम...:श्रृंखला :शास्त्रीय संगीत में आ आ उ उ

शास्त्रीय संगीत में श्रंखला में जे हम जानेंगे ध्रुपद और उसकी आलापचारी के बारे में .ध्रुपद के बारे में पहले भी लिख चुकी हूँ,किंतु फ़िर भी स्मरण के लिए पुनः

ध्रुपद
समृद्ध भारत की समृद्ध गायन शैली हैं ,प्राय : देखा गया हैं की ख्याल गायकी सुनने वाले भी ध्रुपद सुनना खास पसंद नही करते। कुछ वरिष्ठ संगीतंघ्यो ने इस गौरवपूर्ण विधा को बचाने का बीड़ा उठाया हैं,इसलिए आज भी यह गायकी जीवंत हैं और कुछ समझदार ,सुलझे हुए विद्यार्थी इसे सीख रहे हैं , ध्रुपद का शब्दश: अर्थ होता हैं ध्रुव+पद अर्थात -जिसके नियम निश्चित हो,अटल हो ,जो नियमो में बंधा हुआ हो।
माना जाता हैं की प्राचीन प्रबंध गायकी से ध्रुपद की उत्पत्ति हुई ,ग्वालियर के महाराजा मानसिंह तोमर ने इस गायन विधा के प्रचार प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई,उन्होंने ध्रुपद का शिक्ष्ण देने हेतु विद्यालय भी खोला। ध्रुपद में आलापचारी का महत्त्व होता हैं,सुंदर और संथ आलाप ध्रुपद का प्राण हैं ,नोम-तोम की आलापचारी ध्रुपद गायन की विशेषता हैं प्राचीनकाल में तू ही अनंत हरी जैसे शब्दों का प्रयोग होता था ,बाद में इन्ही शब्दों का स्थान नोम-तोम ने ले लिया . शब्द अधिकांशत:ईश्वर आराधना से युक्त होते हैं,गमक का विशेष स्थान होता हैं इस गायकी में वीर भक्ति श्रृंगार आदि रस भी होते हैं ,पूर्व में ध्रुपद की चार बानियाँ मानी जाती थी अर्थात ध्रुपद गायन की चार शैलियाँ इन बानियों के नाम थे खंडारी ,नोहरी,गौरहारी और डागुर
आदरणीय डागर बंधू के नाम से सभी परिचित हैं ,आदरणीय श्री उमाकांत रमाकांत गुंदेचा जी ने ध्रुपद गायकी में एक नई मिसाल कायम की हैं,इन्होने ध्रुपद गायकी को परिपूर्ण किया हैं,इनका ध्रुपद गायन अत्यन्त ही मधुर, सुंदर और भावप्रद होता हैं, इन्होने सुर मीरा आदि के पदों का गायन भी ध्रुपद में सम्मिलित किया हैं श्री उदय भवालकर जी (उपर फोटो ) का नाम युवा ध्रुपद गायकों में अग्रगण्य हैं,आदरणीय ऋत्विक सान्याल जी,श्री अभय नारायण मलिक जी कई श्रेष्ठ संगीत्घ्य ध्रुपद को ऊँचाइयो तक पहुँचा रहे हैं

ध्रुपद में आलापचारी को समझने के लिए सुनिए पंडित उदय भवालकर का गया राग पुरिया में द्रुत आलाप

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11/11/2008

सुनिए सितार पर राग मिश्र काफी में आलाप:श्रंखला शास्त्रीय संगीत में आ आ उ उ का प्रथम चरण:आलाप

पिछली पोस्ट में मैंने आपको आलाप क्या होता हैं यह बताया था ,लीजिये आज सुनिए श्री संजय बंदोपाध्याय द्वारा सितार पर प्रस्तुत राग मिश्र काफी में आलाप ।
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11/08/2008

शास्त्रीय संगीत की आ........ आ .........उ ........उ ........:आख़िर हैं क्या ?

अजी ये शास्त्रीय संगीत की आ आ उ उ तो हमें समझ नही आती न जाने क्या क्या गाते रहते हैं ,गाते हैं या चिल्लाते हैं , की निचे आवाज से उपर आवाज चढा कर बस आ आ उ उ किया करते हैं ?कभी धीमे धीमे आ आ उ उ किया करते हैं ,कभी जल्दी जल्दी आवाज को भगा भगा कर आ आ उ उ किया करते हैं ,कुछ भी हो हैं तो आ आ उ उ ही ,हमारी समझ से तो परे की बात हैं ,इसलिए हमें तो न सुनना पसंद हैं न सुनाने वाले कलाकारों का सुनाना .

ऐसे उदगार वयक्त करते हुए कई महानुभावो को कई कई बार देखा हैं ,उनका भी कोई दोष नही ,शास्त्रीय संगीत को समझा ही जगत से परे की वस्तु जाता हैं की उसे समझने की इच्छा या उसे समझना दोनों ही असंभव लगते हैं ,जिन्हें शास्त्रीय संगीत आ आ उ उ लगता हैं ,उनके लिए यह लेख। शायद यह लेख कई कड़ियों में देना पड़े ,अब पुरी आ आ उ उ जो समझानी हैं :-) ।

ह्रदय के भावो को वयक्त करने के लिए जब मानव ने बोलना सिखा उससे पहले ही आवाज़ को ऊँचा निचा कर अपनी बात सामने वाले को समझाने की कला सीखी । जब उसने बोलना सिखा तो यह आवाज़ को चढाना या घटना उसके वाकचातुर्य या कहे बोलने की कला का उत्कृष्ट साधन बन गया ,उसने अनुभव किया की बोलते समय आवाज़ को निश्चित से ज्यादा कपाया या खीचा नही जा सकता लेकिन जब उसने आवाज़ को खीचने और सुन्दरतम रूप में कंपित करने की कला जानी तो उसने ईश्वरीय वरदान पाया.वह था सुर । इस सुर के सहारे संगीत के निर्मिती की विद्या मानव जाती ने पाई हुई सर्वाधिक आलौकिक और मधुर विद्या थी । जो उसने अपने अनुभव से धीमे धीमे सीखी ,पहले साम संगीत ,लोक संगीत ,और फ़िर शास्त्रीय संगीत और संगीत के न जाने कितने प्रकार ।

शास्त्रीय संगीत वह संगीत जिसका अपना एक शास्त्र हो ,जिसके अपने नियम हो , जीवन की अगर बात करे तो अगर हमें किसी मंजिल को पाना हैं तो सर्वप्रथम हम मंजिल को जाने वाली दिशा निर्धारित करेंगे ,तत्पश्चात मंजिल की और धीमे धीमे ,एक एक टप्पे के साथ ,जीवन का गणित बिठाते ,सजाते ,हँसते -खेलते ,कभी कुछ पल विश्राम करते ,कभी मंथर गति से चलते ,कभी तेजी से भागते , हुए मंजिल तक पहुँचेगे । हमारे जीवन की तरह विशाल और सुंदर और सरल नियमो से बंधा हुआ हैं शास्त्रीय संगीत ।

शास्त्रीय संगीत की मंजिल हैं आत्मिक आनंद जो कलाकार अपने संगीत से स्वयं और श्रोता के लिए उपलब्ध करवाता हैं और इस मंजिल को पाने के लिए कलाकारों को विविध टप्पों से होकर गुजरना पड़ता हैं ,यथा आलाप , ,ख्याल या बंदिश ,तान और इसमे सम्मिलित बहुत सी बातें . जिसे कला प्रेमी आ आ उ उ करार देते हैं :-)इसी आ आ उ उ की प्रथम कड़ी के रूप में हम आज समझेंगे आलाप को ।

शास्त्रीय संगीत के आज के रूप की नीव रखी प्राचीन काल में प्रचलित ध्रुपद गायन ने ,(ख्याल की नीव रखी साधारण गीति ने जिसे हम बाद में समझेंगे )ध्रुपद गायन के बारे में जैसा की वाणी पर उपलब्ध अपनी पोस्ट में मैने बतलाया था की पहले यह मंदिरों में प्रचलित था फ़िर यह रजवाडो और दरबारों में प्रचलित हुआ ,ग्वालियर के महाराजा मानसिंह जिनकी महारानी मृगनयनी थी ने प्रचलित करने में बहुत महत्व पूर्ण भूमिका निभाई इस ध्रुपद गायकी में आलाप गायन का बड़ा महत्व हैं । आलाप .................................ओफ .............. ये आलाप होता क्या हैं ?

अच्छा एक कल्पना करते हैं ,आप सभी को मालूम हैं संगीत में सात सुर होते हैं ,सा रे ग म प ध नि इन्ही सुरों के आधार पर संगीत की पुरी दुनिया टिकी हैं । राग के बारे में मैंने अपनी पिछली पोस्ट में बताया हैं और यह भी बताया हैं की हर राग में एक वादी स्वर होता हैं जो राग का सर्व प्रमुख स्वर होता हैं ,एक संवादी एक विवादी और अन्य न्यास स्वर होते हैं अर्थात जिन पर गायन के समय रुका जा सकता हैं .कल्पना कीजिये हम राग बिहाग गा रहे हैं .उसमे किए जाने वाले आलापों को समझ ने के लिए अब हम ये सोच लेते हैं की हमारा घर मुंबई में हैं जिसका नाम स्वर सा हैं .एक अन्य घर भोपाल में हैं जिसका नाम यथा हम राग बिहाग गा रहे हैं तो वादी अर्थात ग हैं ,हमारे माँ पापा का घर उज्जेन में हैं जो संवादी अर्थात नि हैं ,इसके आलावा हमारे रिश्तेदार का घर बरोड़ा में हैं ,जिसका नाम प हैं व अन्य मित्रो के घर अन्य शहरो में यथा इंदोर ,गोवा वाराणसी में हैं जिनके नाम म रे ध आदि हैं । जब हम आलाप करते हैं तो हम स्वरों के साथ खेलते हैं ,हम इधर उधर से घूम कर यानि इस स्वर से उस स्वर जाकर स्वरों के सुंदर और अद्भुत जोड़े या मेल बनाकर सा और वादी संवादी और अन्य न्यास स्वरों पर रुकते हैं सबसे ज्यादा बार गायन या वादन करते हैं वादी स्वर का सबसे ज्यादा बार सा यानि अपने घर पर रुकते हैं ,फ़िर अपने दुसरे घर यानि ग फ़िर संवादी याने अपने माता पिता के घर जिसका नाम हमने नि रखा हैं रुकते हैं ,फ़िर कभी कभी विवादी स्वरों अर्थात उन रिश्तेदारों के यहाँ भी घूम कर आते हैं जो हमें ज्यादा पसंद नही और आते कहाँ हैं?अपने घर यानि सा पर ,कभी कभी मित्रो के घर भी जाते हैं वहां कुछ गप्पे शप्पे करते हैं ,आस पास के शानदार वास्तु को देखते हैं और घूम घाम कर अपने घर ही आ जाते हैं ,जिस प्रकार हम अपने जीवन में सबके यहाँ वहा जाते हैं समय बिताते हैं अपने सुख और आनदं के लिए तरह तरह के लोगो से मिलते हैं नई नई जगह देखकर फोटो खीच कर अच्छा खाना खाकर मन बहलाते हैं ठीक उसी प्रकार शास्त्रीय संगीतकार आलाप करता हैं यानि सा पर फ़िर वादी संवादी और अन्य न्यास स्वरों पर रुकता हुआ आलाप करता हैं ,हर बार सबसे ज्यादा सा पर आता हैं और नई नई कल्पनाओ से स्वर और राग सजाते हुए अन्य स्वरों पर राग नियमो के अनुसार रुकते हुए आलाप करता हैं ,अब आलाप करते समय ध्रुपद के ज़माने में उं हरी अनंत नारायण जैसे शब्दों का प्रयोग होता था,अब हर किसी संगीतग्य को इन शब्दों के साथ गाना आसन मालूम नही हुआ तो उसने इन शब्दों के स्थान पर और स्वरों के नामो की जगह आ आ करके आलाप करना शुरू किया ,तो यहाँ से शुरू हुआ आ आ उ ऊ का चक्कर ,आज इतना ही,साउंड फाइल उपलोड नही हो सकने के कारण आज आलाप नही सुनवा पा रही हूँ शायद अगली पोस्ट में सुनवा सकूँ।

11/06/2008

उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत के भारत रत्न :एक शब्दांजली

नमस्कार !आपसे प्राप्त टिप्पणियों और मेरे ब्लॉग वाणी और वीणापाणी को आपसे मिले प्रेम के कारण ही मैं आज संगीत विषयक बहुत महत्वपूर्ण पोस्ट निकालने जा रही हूँ ,जब मैंने वाणी ब्लॉग शुरू किया था तो लगा था कोई पढेगा भी या नही ,फ़िर आपकी टिप्पणिया मिली और मुझे वीणापाणी तक आते आते विश्वास हो गया की मैं इस ब्लॉग के जरिये शास्त्रीय संगीत का प्रचार प्रसार जो की मैंने अपने जीवन का ध्येय निश्चित किया हैं कर पाऊँगी .आज श्री रविन्द्र व्यास जी द्वारा वेब दुनिया पर मेरे संगीत ब्लॉग पर आलेख देने से मेरा यह विश्वास दुगुना हो गया ,धन्यवाद ।

अभी अभी आदरणीय पंडित भीमसेन जोशी जी को भारत रत्न दिया जाना तय हुआ हैं , उनके शास्त्रीय संगीत के प्रति योगदान को मेरा नमन । पंडित जी का जनम १४ फरवरी १९२२ को हुआ सन १९९९ मैं उन्हें पदम् विभूषण से सम्मानित किया गया ,ख्याल की गायकी के साथ ही भजन व अभंगो का सुमधुर गायन पंडित जी के गायन की महत्वपूर्ण विशेषता हैं ।

संगीत से जुड़े हर व्यक्ति के लिए आदरणीय पंडित रविशंकर जी का नाम नया नही हैं ,सितार का नाम आते ही जो पहला नाम मन में आता हैं वह पंडित रविशंकर जी का ,भारत रत्न से नवाजे गए पंडित रविशंकर जी ने न सिर्फ़ सितार वादन को लोकप्रिय किया वरन भारतीय शास्त्रीय संगीत को देश के साथ ही विदेशो में भी प्रचारित प्रसारित करने में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ,७ अप्रेल सन १९२० को बनारस में संगीतज्ञ परिवार में जन्मे आदरणीय पंडित रविशंकर जी १५ वर्ष की अल्प आयु में उस्ताद अल्लौद्दीन खान साहब के शिष्य हुए ,२५ वर्ष की अवस्था में इन्होने पहला संगीत कार्यक्रम दिया , दिल्ली आकाशवाणी में इन्होने १९४९ से १९५६ तक काम किया । इनके सांगीतिक योगदान की बात करे तो सारे वेब पेज भर जाए इसलिए संक्षिप्त रूप से इनके योगदान के बारे में लिखना चाहूंगी ,इन्होने कई वाद्यवृन्द रचनाए लिखी,(भारतीय संगीत में ओर्केस्ट्रा या वाद्यवृन्द के बारे में मैं पहले एक पोस्ट निकल चुकी हूँ,)वाद्यवृन्द को बढ़ावा देने में इनका अत्यन्त महत्वपूर्ण योगदान रहा ,डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया (पंडित जवाहरलाल नेहरू कृत )के नाट्य रुपान्तरण के लिए इन्होने संगीत दिया ,कई नवीन रागों का सृजन किया और दक्षिणी पद्धति के कई रागों को उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत शैली में प्रचारित किया यथा ...जन सम्मोहिनी ,हंसध्वनी ,वाचस्पति,किरवानी आदि । पंडित जी जैसे संगीत के युगंधरो के कारण ही शास्त्रीय संगीत सिखने वाले शिष्यों को सिखने ,नवीन रचनाये बनाने की,प्रेरणा मिलती हैं ।
आदरणीय स्वर्गीय उस्ताद बिस्मिल्लाह खान अर्थात शहनाई का दूसरा नाम । शहनाई का स्थान पहले मंदिरों में था ,वह मंगल वाद्य हमेशा से माना गया लेकिन शास्त्रीय संगीत में इसको महत्वपूर्ण स्थान दिलाने में आदरणीय उस्ताद बिस्मिल्लाह खान का अतुलनीय योगदान रहा ,सन १९३० में अपने १४ वर्ष में उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब ने कार्यक्रम देना प्रारंभ किया सन १९६६ में उन्होंने इंग्लेंड के एडिम्बरा महोत्सव में शहनाई वादन प्रस्तुत कर विदेशी जमीन पर देशी वाद्य की छाप को अजरामर कर दिया । इन्होने ओबो वादक मिस्टर रुथवेल के साथ जुगलबंदी की । कई देशो का दौरा किया , इन्होने देशी विदेशी कई शिष्य तैयार किए । कई अलंकर्णो के साथ ही इन्हे भारत रत्न से भी विभूषित किया गया ।

आज जब आदरणीय पंडित भीमसेन जोशी जी को भारत रत्न संम्मान मिलना हैं तब मैं इन सभी भारत रत्न अलंकरण से नवाजे जा चुके संगीतज्ञों को शब्दांजली देकर अपनी कृतज्ञता वयक्त करना चाहती हूँ ।इन सभी गान सम्राटो को मेरा सादर प्रणाम ।

इति

11/05/2008

और क्या कहूँ ?

कुछ दिन पहले एक पोस्ट निकाली थी कहाँ खो गया संगीत ?आज सागर जी की एक पोस्ट पढ़ी ,मेरी माँ ,मम्मी माँ । मजे की बात यह हैं की कल ही में अपने पतिदेव से कह रही थी की कितना सुंदर गीत हैं न। उन्होंने मुझसे पूछा भी की यह गीत तुम्हे क्यों पसंद आया?तो मैंने कहा की भले ही इस गीत की कविता बहुत साहित्यिक नही हैं ,स्वर संयोजन भी बहुत विचारणीय और शास्त्रीय नही हैं किंतु इस गीत में एक सरलता हैं ,भावों सुन्दरता हैं की कैसे एक बेटा अपनी माँ को अपने मन की बात कहता हैं ,यह गीत बहुत सरलता और सच्चाई से गाया गाया हैं और यही इस गीत की खासियत हैं ।

सागर नाहर जी ने अपनी पोस्ट में मेरी इस बात का उल्लेख किया हैं जब मैंने कहा था "मुझे सिर्फ़ इतना ही नही लगता कि शास्त्रीय रागों पर आधारित गाने बनना बंद हो गए हैं ,बल्कि मुझे लगता हैं गीत बनना ही बंद हो गए हैं । संगीत किसे कहेंगे हम ,वह जो जिसमें मधुर स्वर ,उपयुक्त लय ,सुंदर बोल हो और उसे जिसे उसी सुन्दरता से गाया गया हो"। साथ ही उन्होंने पूछा हैं की "सुनिये और बताइये क्या वाकई अच्छे गीत बनना बंद हो गये हैं?"

मैं कहना चाहूंगी की हर बात को देखने का, समझने का एक नजरिया होता हैं ,उस बात का एक अर्थ होता हैं ,उसका एक मर्म होता हैं ,जब मैंने कहा की अच्छे गीत बनना बंद हो गये हैं तो मेरा अभिप्राय बहुतायत में अच्छे गीत बनना बंद हो गए हैं से था ,इक्का दुक्का अच्छे गीत बन रहे हैं बनते हैं ।

जब एक गीत पूर्ण रूप में सामने आता हैं तो उससे जुड़े कई तत्व जैसे संगीत संयोजन,शब्द रचना ,गायन ,वाद्य संयोजन,प्रस्तुतीकरण आदि सभी का समावेश होता हैं ,इसलिए जब कोई गीत हम सुनते हैं तो कहते हैं की हाँ यह गीत बडा अच्छा गाया गया हैं ,या बडे अच्छे शब्द हैं,बडा अच्छा संगीत हैं ,या गीत बहुत अच्छा हैं ।

मैं किसी का नाम नही लुंगी परन्तु कुछ संगीतकार उम्दा संगीत देते हैं,पर ख़ुद बुरा गाकर गीत की स्तिथि ख़राब कर देते हैं,कुछ सारे वाद्य ठूस देते हैं,समझ ही नही आता की गीत कहाँ हैं ?कुछ लय इतनी बढा देते हैं की गीत के भावों की हानी हो जाती हैं । अब पप्पू कांट डांस साला ,कहाँ हैं सुशब्द संगीत ?सिर्फ़ लय हैं . या "ऐ साला अभी अभी हुआ यकीन" ,बाकी के शब्द ठीक होने पर भी साला शब्द ने गीत की गरिमा घटा दी न . ऐसा सब कुछ चल रहा हैं । पहले गीत जब फ़िल्म में दिया जाता था तो इन सभी पक्षों का ध्यान रखा जाता था ,तब उसे उतनी ही सुन्दरता से प्रस्तुत किया जाता था । मेरा यह आग्रह नही हैं की हर गीत शास्त्रीय संगीत की धुनों पर ही सजाया जाए,नही मेरा गैर शास्त्रीय संगीत गीतों को विरोध हैं ,मेरा व्यक्तिगत तौर पर यह मानना हैं की गीत अर्थात स्वर शब्द ताल ,लय और भावों का वैभव ,जो आजकल बहुत कम गीतों में ही या कहें यदा कदा ही पूर्ण रूप से दीखता हैं । बाकी सबकी गीतों को लेकर अपनी अपनी पसंद हैं और रहेगी,मैं और क्या कहूँ?