जातियाँ?और वह भी शास्त्रीय संगीत में ?उस पर इन जातियों को इतना मान ,इतना सम्मान .इनका इतना महत्त्व ?जहाँ देश में जाती - पाती की भावना का त्याग करने की बात समझी जाने लगी हैं ,वहां शास्त्रीय संगीत में आज भी जातियों को सम्मान दिया जा रहा हैं !क्यो?कैसे ?प्रश्नों की श्रृंखला मस्तिष्क में घुमने लगी हैं न ?मुझे भी ऐसा ही लगा था जब पहली बार मैंने संगीत में जातियों की बात सुनी थी ।
संगीत जिसे सभी धर्मो,जातियों के मनुष्यों को आपसी प्रेम और मानवता के बंधन में गूंथने का अटूट साधन माना जाता हैं ,उसमे जातियाँ ?भारतीय संगीत कुछ ऐसा हैं जिसने देश के ही नही विदेशी जनो को भी,चाहे वह किसी भी देश ,धर्म ,जाति के हो, कला के एक अनुपम संसार से जोड़ा हैं। संगीतकार चाहे किसी भी धर्म का हो ,किसी भी जाति का हो ,जब वह संगीत जगत में खो जाता हैं तो वह जाति ,धर्म सबसे उपर उठ कर सिर्फ़ संगीतकार और कलाकार हो जाता हैं,भारत में कितने हिंदू ,मुस्लिम और कितने ही अन्य धर्मो के कलाकारों ने सामान प्रेम भाव से संगीत की आराधना ,पूजा कर भारतीय जनमानस को कला के अद्वितीय जगत से जोड़ा हैं ,संसार भर में आनंद और संगीत को प्रचारित कर ,हर धर्म,सम्प्रदाय और जाति से उपर होकर सिर्फ़ भारतीय होने का कर्तव्य निभाया हैं । फ़िर संगीत में जातियाँ ????
दरअसल आजकल जैसी राग गायन प्रणाली प्रचार में हैं ,वैसी प्राचीन कल में नही थी,उस समय राग ही नही हुआ करते थे ,अब आप सोचेंगे की फ़िर शास्त्रीय संगीतज्ञ कैसे गायन वादन करते थे ?तो उत्तर यह हैं की उस समय जातिगायन प्रणाली प्रचार में थी ,यही जातियाँ वास्तव में मूल राग थी ,इनसे ही आगे चलकर कई राग भी बने ,इन जातियों के दस लक्ष्ण भी बताये गए हैं । जैसे ग्रह ..अंश...मन्द्र.न्यास..अल्पत्व..बहुत्व..आदि आदि ।
किंतु उस समय ही नही आज के शास्त्रीय संगीत में भी जातियाँ हैं ,स्वाभाविक रूप से इन जातियों का प्राचीनकाल में प्रचलित जाति गायन से कोई सम्बन्ध नही हैं,यह जातियाँ हैं रागों की जातियाँ । अगर आपको याद हो तो मैंने पहले भी इन जातियों के बारे में थोड़ा आपको बताया था ।
आप सभी जानते हैं की
" योयं ध्वनी विशेषस्तु स्वरवर्णविभूषित : ।
रंजको जनचित्तानाम स राग: कथितौ बुधै: ॥ "
अर्थात ध्वनी की उस विशेष रचना को जो स्वर वर्णों से युक्त और सुंदर हो और जो लोगो के चित्त का रंजन करे उन्हें आनंद दे वह राग । राग में कई बातो कई होना जरुरी हैं ,जैसे कम से कम पॉँच स्वर ,आरोह ,अवरोह ,सा स्वर का वर्ज न होना ,वादी -संवादी होना ,आदि । किंतु यह बात बड़ी मजेदार हैं की किसी राग में कितने स्वर लगते हैं उस आधार पर उस राग की जाति निश्चित होती हैं ,मुख्यत :रागों की तीन जातियाँ मानी जाती हैं :औडव, षाडव ,सम्पूर्ण ,यह बहुत सरल हैं :-जिस राग में पॉँच स्वर लगते हैं वह औडव जाती का ,जिस राग में छ: स्वर लगते हैं वह षाडव जाती का ,और जिस राग में सतो स्वर लगते हैं वह सम्पूर्ण जाती का हुआ । लेकिन किसी राग में आरोह में पॉँच और अवरोह में सात ,तो किसी में अवरोह में छ: आरोह में पॉँच ,किसी में आरोह में छ: ,अवरोह में पॉँच भी स्वर लगते हैं .तभी तो इतने सारे राग हैं । इस कारण रागों की और नौ प्रकार की जातियाँ बनी :-सम्पूर्ण-सम्पूर्ण,सम्पूर्ण-षाडव,सम्पूर्ण -औडव। षाडव-सम्पूर्ण,षाडव -षाडव,षाडव-औडव। औडव-सम्पूर्ण,औडव-षाडव,औडव-औडव । हैं न सरल।
तो यह हैं शास्त्रीय संगीत की जातियाँ ,सुंदर ,उपयोगी और महत्त्व पूर्ण जातियाँ ,जिनके कंधो पर शास्त्रीय संगीत की राग प्रणाली का महल खड़ा हैं ,हैं न शास्त्रीय संगीत बहुत सरल ,बहुत दिलचस्प ,बहुत सहज । बताये क्या अब भी आपको शास्त्रीय संगीत कुछ बिरला और अनोखा ही लगता हैं ?और अगर अब भी लगता हैं तो मेरी शास्त्रीय संगीत सरल और सहज रूप में आप तक पहुँचाने ,समझाने की कोशिश हमेशा जारी रहेगी।
इति
वीणा साधिका
राधिका
12/31/2008
12/29/2008
सीखिए शास्त्रीय संगीत सिर्फ़ दो महीनो में ......
आज क्रॉस वर्ड गई ,सोचा कुछ अच्छी किताबे खरीद लू ,कुछ किताबे चुनी ही थी की एक किताब पर नज़र गई,लर्न सितार इन १० डेस ,पास ही एक और किताब रखी थी ,लर्न गिटार इन फिफ्टीन डेस,काफी लम्बी श्रृंखला थी ,वैसे तो कई बार किताबो की दुकानों में ,किताबो के ठेलो पर ,रेलवे स्टेशन पर भी इस तरह की किताबे देखी हैं ,और हमेशा इन्हे देखकर हँसी ही आई हैं ,किंतु आज पता नही क्यो,एक किताब उठा कर देखि ,सोचा जो संगीत मैं इन २२-२३ सालो में भी पुरा नही सीख पाई वो ये दस दिन में कैसे सीखते हैं ?जब किताब खोली तो पहले पेज पर था यह सितार हैं चित्र,इसे ऐसे लेकर बैठा जाता हैं ,दूसरा अध्याय था सितार पर मिजराब के बोल ,तीसरा सा ,रे ग म प ध नि कैसे बजाना सीखता था,चौथे में सितार पर एक गत,पांचवे में तान ,छठे में वन्देमातरम कैसे बजाना,सातवे में सितार पर एक फिल्मी गीत ,नवे अध्याय में कलाकरों के चित्र ,दसवे अध्याय में संगीत की कुछ बेसिक जानकारिया और किताब समाप्त,सीखने वालो ने शायद इंतनी ही सरलता और तेजी से सीख भी ली सितार । कमाल हैं बडे बडे संगीतज्ञ हो गए ,कलाकार हो गए पर किसी ने भी यह नही कहा की हमने फला वाद्य या गायन् इतने दिनों या महीनो में सीख लिया,सब यही कहते रहे की हम सीख रहे हैं । मेरे पास भी सीखने के लिए ऐसे विद्यार्थी आते हैं ,जो पहला प्रश्न यह करते हैं की कितने महीनो में वीणा बजाना पुरी तरह से आ जाएगा?अब कितने महीनो में पुरी तरह से आप वीणा बजाना सीख सखते हैं इसका उत्तर न तो मेरे पास था न हैं, क्योकि संगीत एक कला हैं ,कला आत्मा की अभिवयक्ति हैं , कला देवी हैं ,कला ज्ञान का वह सागर हैं जो कभी ख़त्म नही होता ,हम जितना सीखते हैं हमारी अंत: प्रेरणा हमें और नया सिखने समझने पर बाध्य करती हैं,हमारी समझ और बढती हैं ,ऐसे में इस प्रश्न का उत्तर क्या हो सकता हैं सिवाय इसके की भई आप दिनों में मत सीखना चाहो इस विद्या को ,और अगर आपको कुछ दिन में सीखके खत्म करना हैं तो मुझे सीखाना नही आता ।
इंग्लिश सीखिए सिर्फ़ ९० दिनों में ,किताब आती हैं न ! यह ठीक उसी तरह हैं ,जिस तरह कोई भी भाषा कुछ दिनों में नही सीखी जा सकती उसी तरह कला भी कुछ दिनों में सिर्फ़ किताब पढ़के या सिर्फ़ चार दिन गुरु के पास जाकर नही सीखी जा सकती ।
दरअसल इस तरह की किताबो के कारण या विद्यालयों में सिखाये जाने वाले आधे अधूरे संगीत के कारण,मिलती डिग्रियों के कारण,अन्य विषयों की पढ़ाई के दबाव के कारण ,या बढती महंगाई ,कम होती नौकरिया और पैसा कमाने की बढती इच्छा के कारण इस तरह के लोगो का एक वर्ग बढ़ता जा रहा हैं जिसके लिए संगीत कला महज एक दिखावी शौक या इसे गाना भी आता हैं वाला गुण हैं ,जैसे किसी लड़की की शादी होने वाली हो उसे खाना बनाने के साथ और घर के अन्य कामो के साथ उसके डॉक्टर होने की बड़ी बड़ी उपलब्धियों के साथ एक और गुण जिसे उसके बायोडाटा में जोड़ा जा सकता हैं की इसे गाना भी आता हैं ।
वस्तुत: संगीत कला एक ऐसी कला हैं जिसके लिए पुरा जीवन ...नही केवल एक जीवन नही..कई जीवन भी सीखने ,समझने के लिए लग जाए तो आश्चर्य नही कला या विद्या समर्पण मांगती हैं,सतही तौर पर सीखा गया संगीत न सुर देता हैं और न गीत ,सिर्फ़ दिखावा देता हैं और कला की कद्र को कम करता हैं ।
कोई कहता हैं हमारा बेटा इंजिनियर हैं ,कोई डॉक्टर ,कोई बड़ी कम्पनी का डायरेक्टर ,कितने लोग हैं भारत में जो पुरे विश्वास और आनंद से कहते हैं की उनका बेटा या बेटी सन्गीत्ज्ञ हैं ? बड़ी बड़ी डिग्रियों,नौकरियों की आड़ में संगीत जैसी कला को सीखने के लिए चाहिए समर्पण ,समय और धैर्य जो आज कितने कम लोगो में हैं ,सब दौड़ रहे हैं ,बडे पद को ,नाम को हासिल करने के लिए ,और भारतीय संस्कृति की आत्मा कही खो रही हैं,नई पीढी सुन रही हैं ,जॉज , पॉप रॉक ,बस नही सुन रही तो शास्त्रीय संगीत . क्रॉस वर्ड में ही सीडी देखने गई तो शास्त्रीय संगीत वाले विभाग में शुद्ध शास्त्रीय संगीत की चार छ: सिडिस को छोड़ बाकी सारी मिलावटी संगीत की सिडिस थी,जिनमे विदेशी संगीत पर भारतीय संगीत का तड़का लगा हुआ था ,ठीक हैं फ्यूजन अच्छा हो तो कोई बुराई नही ,पर मुझे यह कन्फ्यूजन हो गया की मैं भारतीय संगीत वाले विभाग में सीडी देख रही हूँ या विदेशी संगीत वाले विभाग में । कहते हैं युवा पीढी को फ्यूजन में ही आनंद आ रहा हैं ..पर शुद्ध भारतीय संगीत मूल्य क्या हैं ,वह क्या चीज़ हैं इस बात का ज्ञान करवाने की जिम्मेदारी या तो हम कलाकारों पर ही हैं या ,आज के माता पिता पर या बुजुर्गो पर ।जब तक हम स्वयं अपनी कला और संस्कृति की कद्र नही जानेंगे तो दुसरे कैसे जानेंगे ,जब तक हम स्वयम् प्रयत्न नही करेंगे तब तक सरकार और अन्य सांस्कृतिक संश्तःये कितना और क्या कर लेंगी,कला और कलाकारों को सम्मान देने की जिम्मेदारी भी भारतीय समाज की ही हैं न!
इति
वीणा साधिका
राधिका
इंग्लिश सीखिए सिर्फ़ ९० दिनों में ,किताब आती हैं न ! यह ठीक उसी तरह हैं ,जिस तरह कोई भी भाषा कुछ दिनों में नही सीखी जा सकती उसी तरह कला भी कुछ दिनों में सिर्फ़ किताब पढ़के या सिर्फ़ चार दिन गुरु के पास जाकर नही सीखी जा सकती ।
दरअसल इस तरह की किताबो के कारण या विद्यालयों में सिखाये जाने वाले आधे अधूरे संगीत के कारण,मिलती डिग्रियों के कारण,अन्य विषयों की पढ़ाई के दबाव के कारण ,या बढती महंगाई ,कम होती नौकरिया और पैसा कमाने की बढती इच्छा के कारण इस तरह के लोगो का एक वर्ग बढ़ता जा रहा हैं जिसके लिए संगीत कला महज एक दिखावी शौक या इसे गाना भी आता हैं वाला गुण हैं ,जैसे किसी लड़की की शादी होने वाली हो उसे खाना बनाने के साथ और घर के अन्य कामो के साथ उसके डॉक्टर होने की बड़ी बड़ी उपलब्धियों के साथ एक और गुण जिसे उसके बायोडाटा में जोड़ा जा सकता हैं की इसे गाना भी आता हैं ।
वस्तुत: संगीत कला एक ऐसी कला हैं जिसके लिए पुरा जीवन ...नही केवल एक जीवन नही..कई जीवन भी सीखने ,समझने के लिए लग जाए तो आश्चर्य नही कला या विद्या समर्पण मांगती हैं,सतही तौर पर सीखा गया संगीत न सुर देता हैं और न गीत ,सिर्फ़ दिखावा देता हैं और कला की कद्र को कम करता हैं ।
कोई कहता हैं हमारा बेटा इंजिनियर हैं ,कोई डॉक्टर ,कोई बड़ी कम्पनी का डायरेक्टर ,कितने लोग हैं भारत में जो पुरे विश्वास और आनंद से कहते हैं की उनका बेटा या बेटी सन्गीत्ज्ञ हैं ? बड़ी बड़ी डिग्रियों,नौकरियों की आड़ में संगीत जैसी कला को सीखने के लिए चाहिए समर्पण ,समय और धैर्य जो आज कितने कम लोगो में हैं ,सब दौड़ रहे हैं ,बडे पद को ,नाम को हासिल करने के लिए ,और भारतीय संस्कृति की आत्मा कही खो रही हैं,नई पीढी सुन रही हैं ,जॉज , पॉप रॉक ,बस नही सुन रही तो शास्त्रीय संगीत . क्रॉस वर्ड में ही सीडी देखने गई तो शास्त्रीय संगीत वाले विभाग में शुद्ध शास्त्रीय संगीत की चार छ: सिडिस को छोड़ बाकी सारी मिलावटी संगीत की सिडिस थी,जिनमे विदेशी संगीत पर भारतीय संगीत का तड़का लगा हुआ था ,ठीक हैं फ्यूजन अच्छा हो तो कोई बुराई नही ,पर मुझे यह कन्फ्यूजन हो गया की मैं भारतीय संगीत वाले विभाग में सीडी देख रही हूँ या विदेशी संगीत वाले विभाग में । कहते हैं युवा पीढी को फ्यूजन में ही आनंद आ रहा हैं ..पर शुद्ध भारतीय संगीत मूल्य क्या हैं ,वह क्या चीज़ हैं इस बात का ज्ञान करवाने की जिम्मेदारी या तो हम कलाकारों पर ही हैं या ,आज के माता पिता पर या बुजुर्गो पर ।जब तक हम स्वयं अपनी कला और संस्कृति की कद्र नही जानेंगे तो दुसरे कैसे जानेंगे ,जब तक हम स्वयम् प्रयत्न नही करेंगे तब तक सरकार और अन्य सांस्कृतिक संश्तःये कितना और क्या कर लेंगी,कला और कलाकारों को सम्मान देने की जिम्मेदारी भी भारतीय समाज की ही हैं न!
इति
वीणा साधिका
राधिका
12/24/2008
क से कक्षा में बैठ कर स से संगीत नही सिखा जा सकता ..
सा रे गा मा पा ध नि सा ...............कुछ बेसुरे,कनसुरे ,छोटे ,बड़े स्वर मुझे शाम से सुनाई दे रहे थी,फ़िर सुनाई दिया भजन सदा शिव भज मना निस दिन ...........चार साल बाद आज भी वही स्वर सुनाई देते हैं ,उतने ही बेसुरे ,उतने ही कनसुरे फर्क सिर्फ़ इतना ही हैं की अब गाये जाने वाले राग और बंदिशे पहले से अधिक और अलग हैं ।
मेरे पास संगीत सिखने की इच्छा रखकर एक मेरे ही उम्र की युवती आई ,मैंने उससे कहा की क्या सीखा हैं अब तक ? उसने गर्व से बताया ,मैंने विद किया हैं । मैंने कहा अच्छा कुछ सुनाओ । उसने शुरू किया ...सा मा री पा गा धा मा नि... घर्षण युक्त आवाज और वही बेसुरापन ,ग को गा ,म को मा ,प को पा कहना और विद पास .शायद वह कल के लिए एम् ऐ भी पास कर ले ।
दोष उस लड़की का नही ,दोष हैं संगीत की विद्यालयीन शिक्षण प्रणाली का । आदरणीय भातखंडे जी ने इस आशा से की शास्त्रीय संगीत का प्रचार होगा विद्यालयीन संगीत शिक्षण प्रणाली को प्रतिष्ठित किया था ,तब अच्छे गुरु थे ,मन लगा कर समय देकर सीखने वाले विद्यार्थी थे ,तो यह प्रणाली कुछ सही लगती थी। लेकिन आज विद्यालयों में जैसा सीखाया जाता हैं उससे संगीत की सिर्फ़ अधोगति ही हो सकती हैं ,ढेर सारा पाठ्यक्रम २०-२५ राग, हर राग में बंदिशे ,आलाप ताने,अब शास्त्रीय संगीत याने कोई बच्चो का खेल तो हैं नही की पट से सीख लिया ,यह तो मेहनत और बहुत सारा समय देकर सीखी जाने वाली विद्या हैं ।
विद्यार्थी कक्षा पास कर लेते हैं ,लेकिन वास्तव में कुछ भी सीख नही पाते ,इसलिए अगर किसी को शास्त्रीय संगीत का शिक्षण लेना हैं तो व्यवस्थित किसी गुरु के पास जाकर ही सीखना उचित होगा ,ऐसा मेरा पक्का मत हैं ,क से कक्षा में बैठकर ग से गंधार को गा और म से मध्यम को मा गाया जा सकता हैं पर स से संगीत की सुंदर ,सुवय्वस्थित और सारगर्भित शिक्षा नही ली जा सकती।
इति
वीणा साधिका
राधिका
मेरे पास संगीत सिखने की इच्छा रखकर एक मेरे ही उम्र की युवती आई ,मैंने उससे कहा की क्या सीखा हैं अब तक ? उसने गर्व से बताया ,मैंने विद किया हैं । मैंने कहा अच्छा कुछ सुनाओ । उसने शुरू किया ...सा मा री पा गा धा मा नि... घर्षण युक्त आवाज और वही बेसुरापन ,ग को गा ,म को मा ,प को पा कहना और विद पास .शायद वह कल के लिए एम् ऐ भी पास कर ले ।
दोष उस लड़की का नही ,दोष हैं संगीत की विद्यालयीन शिक्षण प्रणाली का । आदरणीय भातखंडे जी ने इस आशा से की शास्त्रीय संगीत का प्रचार होगा विद्यालयीन संगीत शिक्षण प्रणाली को प्रतिष्ठित किया था ,तब अच्छे गुरु थे ,मन लगा कर समय देकर सीखने वाले विद्यार्थी थे ,तो यह प्रणाली कुछ सही लगती थी। लेकिन आज विद्यालयों में जैसा सीखाया जाता हैं उससे संगीत की सिर्फ़ अधोगति ही हो सकती हैं ,ढेर सारा पाठ्यक्रम २०-२५ राग, हर राग में बंदिशे ,आलाप ताने,अब शास्त्रीय संगीत याने कोई बच्चो का खेल तो हैं नही की पट से सीख लिया ,यह तो मेहनत और बहुत सारा समय देकर सीखी जाने वाली विद्या हैं ।
विद्यार्थी कक्षा पास कर लेते हैं ,लेकिन वास्तव में कुछ भी सीख नही पाते ,इसलिए अगर किसी को शास्त्रीय संगीत का शिक्षण लेना हैं तो व्यवस्थित किसी गुरु के पास जाकर ही सीखना उचित होगा ,ऐसा मेरा पक्का मत हैं ,क से कक्षा में बैठकर ग से गंधार को गा और म से मध्यम को मा गाया जा सकता हैं पर स से संगीत की सुंदर ,सुवय्वस्थित और सारगर्भित शिक्षा नही ली जा सकती।
इति
वीणा साधिका
राधिका
12/16/2008
तानसेन और कानसेन
तानसेन के साथ कानसेनो का रिश्ता काफी पुराना हैं ,अगर कानसेन नही होते तो तानसेन भी नही होते ,कानसेन चाहे उस युग में रहे हो,जब स्वयं संगीत सम्राट तानसेन दीपक गाकर सम्राट अकबर के दरबार में अग्नि प्रज्वलित करते थे ,या इस युग में जब बड़ी बड़ी रोशनियों की चमक में ,बड़े से पंडाल में ,बडे बडे गायकों वादकों की सुर सिद्धि की दमक में कालजयी संगीतग्य तानसेन की स्मृति में उन्ही की समाधी पर तानसेन समारोह हो रहा हो । कानसेनो ने संगीत का साथ नही छोड़ा,चाहे कडकडाती ठण्ड हो,या संगीत सभाओ के कारण तीन रातो का सतत जागरण ,वे आते रहे और बडे -छोटे कलाकारों का मनोबल बढाते रहे । उन्ही के दिए मनोबल के हर युग में तानसेन जैसी युग गायक वादक होते रहे ,होते रहेंगे ।
बचपन मेरा इसी तानसेन संगीत समारोह की स्वर लहरिया संजोते हुए गुजरा , शायद ही अब तक कोई ऐसा साल गया हो जब मैं इस समारोह में कलाकारों का गायन वादन सुनने नही पहुँची हूँ और फ़िर इस साल तो पुनः १९८९ के बाद एक बार फ़िर मेरे पिताजी और गुरूजी पंडित श्रीराम उमडेकर का सितार वादन तानसेन में था ,बस क्या था ,पहुँच गई ग्वालियर । वही हर साल सा उत्साह वहां तानसेन के लिए ,तीन दिन स्कूल कॉलेज और ओफिसेस की छुट्टी । पहले हर बार तानसेन अलंकरण दिया जाता हैं किसी महान गायक वादक को,इस बार यह वर्षो पुरानी परम्परा टूटी ,कुछ कारणों से इस बार तानसेन सम्मान नही दिया जा सका , डीडी भारती पर इस समारोह का लाइव टेलीकास्ट भी नही दिखाया जा सका ,इससे देश विदेश के कई श्रोता यह समारोह सुनने से वंचित रह गए । किंतु समारोह स्थल पर पिछले कुछ वर्षो से कम नज़र आती कानसेनो की भीड़ इस बार बहुत बढ़ गई । साथ ही बढ़ गया कलाकारों का मनोबल पहली सभा में पंडित अजय चक्रवाती की सुपुत्री कौशिकी चक्रवती का गायन और पिताजी का सितार वादन हुआ ,जिसे कानसेनो ने खूब सराहा ,पंडित हरिप्रसाद जी का बासुरी वादन तो श्रोताओ पर इस कदर छाया की श्रोता चाहते थे की वो बजाते रहे और वे सुनते ही रहे ,श्री पुर्वायन चटर्जी ने सितार वाद्य में ही आमूलचूल परिवर्तन कर अपनी उन्नत वादन शैली को कानसेनो के समक्ष प्रस्तुत किया तो बिहाग की स्वर संध्या में कानसेन झूम उठे,इनके आलावा भी कई कलाकारों ने अपने गायन वादन से सुर और साजो का अनूठा समां बांधा । इस तरह कुछ कमियों के बावजूद ही सही इस बार भी कानसेनो की कृपा से ही तानसेन संगीत समारोह सफलता के साथ संपन्न हुआ ।
इति
वीणा साधिका
राधिका
बचपन मेरा इसी तानसेन संगीत समारोह की स्वर लहरिया संजोते हुए गुजरा , शायद ही अब तक कोई ऐसा साल गया हो जब मैं इस समारोह में कलाकारों का गायन वादन सुनने नही पहुँची हूँ और फ़िर इस साल तो पुनः १९८९ के बाद एक बार फ़िर मेरे पिताजी और गुरूजी पंडित श्रीराम उमडेकर का सितार वादन तानसेन में था ,बस क्या था ,पहुँच गई ग्वालियर । वही हर साल सा उत्साह वहां तानसेन के लिए ,तीन दिन स्कूल कॉलेज और ओफिसेस की छुट्टी । पहले हर बार तानसेन अलंकरण दिया जाता हैं किसी महान गायक वादक को,इस बार यह वर्षो पुरानी परम्परा टूटी ,कुछ कारणों से इस बार तानसेन सम्मान नही दिया जा सका , डीडी भारती पर इस समारोह का लाइव टेलीकास्ट भी नही दिखाया जा सका ,इससे देश विदेश के कई श्रोता यह समारोह सुनने से वंचित रह गए । किंतु समारोह स्थल पर पिछले कुछ वर्षो से कम नज़र आती कानसेनो की भीड़ इस बार बहुत बढ़ गई । साथ ही बढ़ गया कलाकारों का मनोबल पहली सभा में पंडित अजय चक्रवाती की सुपुत्री कौशिकी चक्रवती का गायन और पिताजी का सितार वादन हुआ ,जिसे कानसेनो ने खूब सराहा ,पंडित हरिप्रसाद जी का बासुरी वादन तो श्रोताओ पर इस कदर छाया की श्रोता चाहते थे की वो बजाते रहे और वे सुनते ही रहे ,श्री पुर्वायन चटर्जी ने सितार वाद्य में ही आमूलचूल परिवर्तन कर अपनी उन्नत वादन शैली को कानसेनो के समक्ष प्रस्तुत किया तो बिहाग की स्वर संध्या में कानसेन झूम उठे,इनके आलावा भी कई कलाकारों ने अपने गायन वादन से सुर और साजो का अनूठा समां बांधा । इस तरह कुछ कमियों के बावजूद ही सही इस बार भी कानसेनो की कृपा से ही तानसेन संगीत समारोह सफलता के साथ संपन्न हुआ ।
इति
वीणा साधिका
राधिका
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