इंस्टेंट फ़ूड??
अरे मतलब मैगी या पास्ता कुछ भी फटाफट ...ठीक हैं, बना दी मैगी ,कुछ देर बाद मुझसे बोले.आप वीणा बजाते हो मम्मी कह रही थी ,मैंने कहा हाँ ..
तो कुछ बजाओ ..मैंने कहा ठीक और जैसे ही एक मिनिट आलाप किया बोले नही ये नही कुछ अच्छा बजाओ ,मैंने गत शुरू की बोले यह भी नही ,कुछ फटाफट...मैंने ताने बजाई..बोले नही नही ये भी नही कुछ और,मैंने एक पुरानी फ़िल्म का गाना बजाया ..बोले नही ये क्या हैं रोनू टाइप ..कुछ और मैंने एक नई फ़िल्म का गाना बजाया बोले हाँ ठीक हैं,कुछ सही हैं लेकिन आपको कुछ फटाफट अच्छा वाला म्यूजिक नही आता ,हमारे भइया तो ड्रम के साथ ये फटाफट फटाफट केसियो बजाते हैं ,अभी मैं अगर उनसे कहता की भइया कुछ नया फटाफट बजाओ तो मेरे भइया ,केसियो पर ड्रम बीट्स लगाकर इतना अच्छा सा कुछ बजाते की हम सब उस पर डांस भी कर सकते थे । मैं निराश॥
इन बच्चो को क्या सुनाऊ ,अंत मैंने इलेक्ट्रॉनिक तबले पर भागती ,नाचती सी एक इंस्टेंट धुन बनाकर बजाई,बच्चे खुश ,खूब नाचे और फ़िर से आने का वादा कर अपने घर लौट गए ,मैं काफी देर इस वाकये पर और बच्चो की तेज तर्रारी पर हँसती रही , सोचने लगी क्या बच्चे हैं इन्हे सब कुछ तुरत फुरत चाहिए ,फ़िर सोचा बच्चे ही क्यो आजकल बडे भी कुछ ऐसे ही हैं,फास्ट फ़ूड खाने वाले,धमाधम म्यूजिक सुनने वाले ,तेज गति से नित्य घर ऑफिस भागने वाले...फ़िर सोचा आख़िर क्यो ?
उत्तर मिला .. हर किसी को सब कुछ फटाफट ही चाहिए क्योकि मनुष्य सवभाव में धैर्य की कमी आ गई हैं । पहले एक समय था जब आराम से घरो में खाना बनता था ,भगवान् को भोग लगता था ,बच्चो के लिए काफी अच्छे तरह तरह के पदार्थ बनाये जाते थे,और घर के सब छोटे बडे सदस्य मिल कर साथ खाते थे ,और अब रखी गैस पर कढाई ,पानी उबाला ,मैगी डाली और इंस्टेंट फ़ूड तैयार । नही हुआ तो होटल से खाना तैयार ,कभी पास्ता कभी पिज्जा ,कभी ब्रेड .. बात यह नही हैं की समय की कमी हैं बात यह हैं की धैर्य की कमी हैं ।
संगीत में भी पहले लोग घंटो आलाप सुनने को तैयार रहते थे,अब कहते हैं ये क्या हैं नींद आ रही हैं,कुछ तबले के साथ सवाल जवाब हो तो आनंद आए ,और जब तबले के साथ बजे तो चाहते हैं कुछ बोलो का काम या लयकारी ,ताने वाने बजे,मजे की बात तो यह हैं कई बार जनता जनार्दन ऐसी जगह पर तालियाँ बजाती हैं जब तालियाँ बजाने का कोई औचित्य ही नही हो,उदहारण कोई तबले की तिहाई तबला वादक ने बजाई दुर्भाग्य से वो सही जगह नही आई ,लेकिन क्योकि खूब धमाधम बजाई तो श्रोताओ ने तालियाँ भी बजा दी ,सही ग़लत कौन देखता हैं,धम धम धम आवाज आई तो क्या कमाल हैं . ताने सुनना हैं ,अब वो बेसुरी हो या सुर में,वाह क्या हाथ चलता हैं सितार पर ,गिटार पर ,अजी! यह भी तो देखिये की कितना स्वर से हटकर बज रहा हैं .सबसे ज्यादा हँसी तो तब आती हैं की कमाल हैं भाई इतना अच्छा बजाया पुरा, तब इतनी तालियाँ नही बजी अब झाले के अंत में जब सिर्फ़ हवा से बाते करता धा धिन धीन धा और सा सा सा सा का झाला बज रहा हैं तो इतनी तालियाँ बज रही हैं की अपना अपने को क्या बजा रहे हैं तक नही सुनाई आ रहा ।भगवान की दया से कुछ श्रोता अब भी कफिऊ धैर्य और समझ से संगीत सुनते हैं,उनकी हौसला अफजाई के कारण ही कलाकार पुरा गायन वादन शांति और सुंदरता से कर पाता हैं .
एक संगीतकार महोदय कहते हैं उनके पास हजारो गानों की धुनें तैयार हैं ,वाह भाई कब बनाई ,अभी ,मैं तो यु ही बैठे बैठे पल में बना लेता हूँ ,कमाल हैं यहाँ एक धुन बनानी हो ,तो विचार किया जाता हैं ,सोचा जाता हैं ,स्वर संयोजन,वाद्य संयोजन आदि आदि किया जाता हैं,दसो बार उसमे ऐसा नही ऐसा ज्यादा अच्छा लग रहा हैं करके परिवर्तन किया जाता हैं,और इनकी धुनें तैयार इंस्टेंट ..कैसे ?भई ऐसे, करना क्या हैं ?सबसे सरल स्वर संयोजन गा दिया ,जैसे ग ग म म प प ग ग रे रे ग ग रे सा और बिठा दिए इस पर शब्द ,कोई भी तेज सी ड्रम बीट सजा दी साथ में और हो गया स्वर संयोजित गीत ,सुनने वाले झूम रहे हैं,क्योकि उनके लिए तो काफी अच्छा हैं,इसे वह आसानी से गा सकते हैं ,कार चलाते सुन भी सकते हैं,मन किया तो इस पर नृत्य भी कर सकते हैं , या अपनी कालर ट्यून बना कर फ़ोन कर्ताओ को सुनवा भी सकते हैं .
ज़रूरत हैं स्वभाव में शांति,और धीरज लाने की,समय पहले भी वही था २४ घंटे का,और १९०० से लेकर आज २००९ में भी वही हैं २४ घंटे का ,सालो से लोगो के पास यही २४ घंटे रहे हैं,समय कम नही हुआ हैं धैर्य की कमी हो गई हैं,आज भी धीरज से बैठे सुने संगीत तो आनंद आएगा ,कुछ अच्छा संगीत समझा जाएगा ,नही तो हैं ही इंस्टेंट म्यूजिक ॥
खैर इसी बात पर सुनते हैं कुछ अच्छा सा संगीत :सुनते हैं आदरणीय पंडित विश्व मोहन भट द्वारा ,मोहन वीणा पर बजायी केसरियां बालमा दादरा /गीत जो की बिल्कुल इंस्टेंट नही हैं ,बहुत ही सुंदरता से बनाया बहुत ही मधुरता से बजाया गया हैं,सुस्वर और संगीत से भरपूर .
इति
वीणा साधिका
राधिका
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राधिका बुधकर आप ने बिलकुल सही फ़रमाया, वेसे आज भी समय की कमी नही, बल्कि धोर्य की कमी है, हम आज तक होटल मे खाना खाने नही गये(कही घर से दुर हो तो मजबुरी मै) क्य्प्कि हमे स्वाद ही नही लगता होटल का खाना, एक बात घर के खाने के सामने सब फ़ास्ट फ़ुड भी फ़ेल है. ओर वही बात संगीत की है, संगीत मै मन नाच उठे, ना कि पाव हम तो उसे ही संगीत कहते है, अब चाहे वो तवला वादन हो, सारंगी, बंसुरी हो या सितार, जब कोई संगीत इन्हे बजाये तो लोगो को बांध कर रख दे,
ReplyDeleteधन्यवाद
बिल्कुल सही कहा आपने....टू मिनट रेडी टू ईट वाले ज़माने में व्यक्ति मन आत्मा से नहीं इन्द्रियों द्वारा शाशित ,नियंत्रित होता है और इन इन्द्रियों को सर्वत्र उत्तेजना/ झटका चाहिए.दिन पर दिन धैर्य व्यक्ति के हाथ से छूटा जा रहा है.
ReplyDeleteराधिका
ReplyDeleteआपका यह ब्लॉग बहुत शानदार है। मैंने ३१ तारीख के हिंदुस्तान में अपने कॉलम में इसके बारे में लिखा भी है। आप बहुत अच्छा काम कर रही हैं। हम जैसे संगीत निरक्षरों को साक्षर कर रही हैं।
रवीश
aap ka blog prabhavit karta hai.hum bhi mureed hai.
ReplyDeleteराधिका बुधकर जी
ReplyDeleteनमस्कार
आपका आलेख हकीकत में यथार्थ के धरातल पर शत प्रतिशत खरा है, लेकिन हम प्रचलन को कैसे रोकें,क्या ये भागमभाग रुक सकती है. जबकि ये सब सयास किया जा रहा बुरा माहोल ही कहा जाएगा , केवल तकनीकी रोबेट आवाज या काम कर सकेगा , भावनाएँ नही ला सकता , संवेदनाएँ कहाँ से आएँगी एक सच्चे संगीत साधक की भावनाएँ ये बेसुरे गीत संगीत को सुन कर कराहने के सिवाय अकेले दम पर क्या करेंगीं और कितना कर पाएगी , बस यही विचारणीय बिन्दु है जिसे केवल सहकार और सरकार के सहयोग के बिना पूरा नही किया जा सकता
आपका
विजय
आपके प्रश्न सही हैँ और
ReplyDeleteबहुत पसँद आया सँगीत भी -
नये साल मेँ
आपकी सारी परेशानियाँ दूर हो
यही शुभ सँदेश है
- लावण्या
दुविधा की बात है लेकिन मन को विश्वास है कि इस दौर को भी हम पार कर ले जायेंगे। ये सत्य है कि समर्पित कलाकारों के सम्मान के लिये समर्पित श्रोताओं का होना आवश्यक है। लेकिन यकीन मानिये अच्छी श्रोता अभी भी हैं जो सिर्फ़ आलाप को मन लगाकर शान्ति से सुनना और महसूस करना चाहते हैं ।
ReplyDeleteइस इंस्टैंट कल्चर ने जीवन के हर पहलू को प्रभावित किया है। जिन पड़ावों से गुज़रना ज़रूरी हो उन्हें लांघ कर दूरी तो पाटी जा सकती है, लक्ष्य नहीं पाया जा सकता। लक्ष्य क्या है ? संतोष, उपलब्धि का भाव, तृप्ति !!! फटाफट संस्कृति में ये सब नहीं है। सिर्फ इनका छद्म है। आभास है। बोंसाई चाहे जितना खूबसूरत दिखे, वनस्पति को शोभा देने वाले नैसर्गिक गुणों से वह दूर ही होता है।
ReplyDeleteजरूरी मुद्दे पर सार्थक चर्चा।
बिल्कुल सही कहा है आपने । आजकल के जमाने में लोगो के पास धैयॆ नही रह गया है । लोग हर चीज को फटाफट करना चाहते है और यह भी चाहते है कि जितनी जल्दी संभव हो सके । सच्चाई यह है कि फटाफट के मारे वो चीज नही दिखाई दे रहा है । खासकर वो परम्परा और मान्यता फटाफट में जाती रही है । चाहे संगीत हो या फिर साहित्य फटाफट के कारण लोगो के दिल से हटता जा रहा है । और लोग तेज धुन पर थिरकते है भले ही वे म्युजिक को समझे या नही । आपको धन्यवाद । मेरे ब्लाग पर भी आये
ReplyDeleteराधिका जी,
ReplyDeleteजिस तरह संगीत का अपना पारलौकिक आनंद है उसी तरह "इन्स्टंट" का भी अपना अलग इहलौकिक मज़ा है. यदि इन दोनों को मिला दिया जाए तो बनने वाला "इंस्टैंट म्यूजिक" तो कई गुना ज़्यादा आनंददायक होगा ही. हम किसी भी वाद को दुनिया में तब तक नहीं चला सकते हैं जब तक कि उस वाद में अपनी कोई उपयोगिता न हो. समय के साथ वही टिकता है जो अच्छा हो - और भारतीय शास्त्रीय संगीत यह परिक्षा कब की पास कर चुका है.
kumar gandharva sahab ki nagari se likh raha hoon.
ReplyDeleteaapane sahi likha hai.
kumar ji 17vi punya tithi 12 jan. 2009ko hai.dewas(mp) me unake niwas par ek aayojan sham ko rakha hai. taai vasundhara komkali har varsh aayojan karati hain.
is bar
tabala solo: mrs. sangeeta agnihotri(indore)
shastriya gayan: mrs. alakadev marulkar (gova) ki prastuti hai.
kumarji ke ghar ka num. 07272-222432,07272-222212 hai.
सही कहा आपने आपको नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।
ReplyDeleteसवाल पेचीदा है और मात्र संगीत का ही नहीं, हर विषय पर यह अधैर्य लागू होता है. एक मित्र से बात चल रही थी तो बोले देखो भाई, theory of evolution means there's no turning back. लगता है ठीक ही कह रहे थे.
ReplyDeleteअपने बेटे को आजकल के संक्रामक संगीत से बचाए रखने के लिए अभी से उसके सामने शास्त्रीय संगीत और बेगम अख्तर सरीखे कलाकार बजने देता हूँ. शायद संस्कार कुछ काम कर जाएँ.
पोस्ट लिखते लिखते दूसरी खिड़की पर केसरिया बलमा सुन रहा हूँ. धन्यवाद!!!
और नए साल की शुभकामनाएं!!!
मेरी कामना है की आपके शब्दों को नई ऊंचाइयां और नए व गहरे अर्थ मिलें और विद्वज्जगत में उनका सम्मान हो.
ReplyDeleteकभी समय निकाल कर मेरे ब्लॉग पर एक नज़र डालने का कष्ट करें.
http://www.hindi-nikash.blogspot.com
सादर-
आनंदकृष्ण, जबलपुर.
इन्स्टॆंट वस्तु का असर भी इस्टॆंट तो होगा, मगर वह कपूर की मानिंद ज़ेहन से इन्टॆंटली उड़ भी जायेगा.
ReplyDeleteभारतरत्न लताजी नें कहा ही है, कि पहले फ़िल्मी गानें में गायक महत्वपूर्ण होता था, और पार्श्व संगीत , ताल आदि सपोर्टिव भूमिका निभाते थे. लेकिन अब धुन, ओर्केस्ट्रा, परकशन वाद्य सर्वोपरी महत्वपूर्ण है, और गायक गौण.
उत्तेजना, झटके, और अनियंत्रित ज़िंदगी आजके इस नई पीढी़ का रोलरकोस्टर दर्शन है.
मोहन वीणा का केसरिया धुन रूह के अंदर उतर गयी. शयाद हमेशा के लिये. क्या ही अच्छा हो अगर आप भी यही धुन (आपके द्वारा साधी हुई)बजायें. कोई तुलना के लिये नहीं, मगर आत्म सुख और अपने ही ब्लोग परिवार में भावनात्मक जुडाव को और गहरा करने के लिये. आखिर आप के इस ब्लोग से कईयों का भला भी तो हो रहा है.
प्रस्तुत वीणावादन का राग भी बतायें तो बेहतर होगा.
सुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteplease visit my blog
paraavaani.blogspot.com
राधिका !
ReplyDeleteआपका चिटठा देखा...रुचा... एक नया प्रयास दिव्यनार्मादा.ब्लागस्पाट.कॉम है देखिये...मन भये तो जुड़िये. इसमें संगीत का एक प्रिष्ठ हो जिसका संपादन आप करें साहित्य, संगीत, रंगमंच, हस्त कलाएं, विज्ञानं, यांत्रिकी सभी के प्रष्ट हों, ऐसे सोच है, जो जो लोग मिलते जाएँ, जुडें तो क्रमशः रूपाकार निखरेगा...अभी प्राम्भ मात्र है. mere geet aapne dekhe hee hain ...sambhav hon to unhen swar den...